कविता
कतेक परती बीघा देखलौं
आरिये- आरि अपने देखलौं
गेलौं शहर जे हम पढ़य वास्ते
गिरैत पड़ैत बस बस्ते ढोलौं
नौकरी प्राइवटमे दिन-राति
घसीटति दिनक रौशनी नै पेलौं
गेल दुनियाँ देखते आँखि सँ दूर
आर अहाँ पूछलौं ई की भेलौ रौ?
उन्नति आनक देखि ऊहापोह मन
मँझदार सँ दूर एक राह पकड़लौं
पड़ाएलौं परदेश बेसी पढ़िक़S
सूद ककरो आब कहाँ लेलौं?
अपनत्व कक्का मामा भैया सभ
बिसरलौं आ पुछै छी - की भेलौ रौ?
पखवाड़ा भरि छुट्टीमे सोचि सभ
बिखरलके समेटब जे भेटल नै कियो
चौथाई दाम एसटीडी देर साँझमें
फ्री रहितो केकरो समय कहाँ पेलौं
चौगामा समाज चारि दिवारमें बस
आर बाबू,अहाँ पूछलौं की भेलौ रौ?
...
कवि - विजय बाबू
कविक ईमेल - vijaykumar.scorpio@gmail.com
प्रतिक्रियाक लेल ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com
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